AN AUTUMN EVENING SOULFUL LOVE STORY BY Ivan Bunin
उस बरस जून में वह हमारे यहां रहा। हम दोनों के पिता अच्छे दोस्त थे। उसके पिता गुज़र चुके थे। एक शाम पिताजी डाक में आया अखबार लेकर खाने की मेज़ पर आए, जहां वह, मां और मैं चाय पी रहे थे। पिताजी ने कहा, ‘तो दोस्तो, जंग शुरू हो चुकी है। आस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिनेण्ड सरायेव शहीद हो गए हैं। यह है युद्ध!’
एक दिन घर में भोज पर बहुत से लोग आए थे। उस दिन पिताजी ने कहा कि हम दोनों की शादी होगी। लेकिन अचानक जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया। फिर सितम्बर में वह सिर्फ़ एक दिन के लिए हमारे यहां आया। सिर्फ़ विदा लेने के लिए। हमें लगता था कि लड़ाई जल्दी ख़त्म हो जाएगी, इसलिए हमारी शादी भी कुछ महीनों के लिए टाल दी गई। विदा की शाम हम चुपचाप और उदास बैठे थे। मां चश्मा लगाए लैम्प की रोशनी में उसके लिए एक बैग सिल रही थी। पिताजी ने पूछा, ‘तो सुबह जल्दी जाना चाहते हो, नाश्ता लेकर नहीं ?’
‘जी अगर आपकी आज्ञा हो तो सुबह ही।’ उसने जवाब दिया। मां और पिताजी ने अपने भावी दामाद को आशीर्वाद दिया। अब हम दोनों ही कमरे में अकेले रह गए थे। वह चुपचाप कमरे में टहल रहा था। फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या थोड़ी देर बाहर घूमने का मन है? मेरा दिल डूब रहा था, मैने बेमन से ही कहा, ‘ठीक है।’ कोट पहनते हुए वह कविता गुनगुनाने लगा, ‘पतझड़ में यह कैसी ठंड…. चीड़ों के बीच जैसे जल रही हो आग।’
मैंने कहा, ‘कैसी आग ?’
‘यहां आग का मतलब चांद के निकलने से है। गांवों में शरद ऋतु के सौन्दर्य का वर्णन है।’
‘हे भगवान।’
‘क्या हुआ ?’
‘कुछ नहीं प्रिये। फिर भी दुःख की बात है। बुरा भी लग रहा है और अच्छा भी। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं।’
कोट पहनकर हम बाहर बगीचे में आ गए। अंधेरा घना था, इसलिए मैं उसका हाथ पकड़े चलती रही। जैसे ही आकाश में चांदनी जागी, वह रुक कर घर की तरफ़ मुड़ते हुए बोला, ‘देखो, शरद में घरों की खिड़कियां भी रोशनी में कैसी चमक रही हैं। अगर मैं ज़िंदा रहा तो ज़िंदगी भर यह शाम (EVENING) याद रखूंगा….।’
हम दोनों ही कुदरत के नज़ारों को आंखों में भरते रहे। फिर उसने मुझे गले लगाकर चूम लिया। मैंने चेहरे पर से स्कार्फ हटाया और सिर पीछे किया। फिर वह मुझे चूमकर मेरी आंखों में झांकते हुए बोला, ‘तुम्हारी आंखें कितनी चमक रही हैं! तुम्हें सर्दी तो नहीं लग रही? हवा जाड़ों की तरह ठंडी है। अगर मैं जंग में मारा गया तो उम्मीद करता हूं कि तुम मुझे जल्दी से नहीं भूल पाओगी ?’
मैंने सोचा कि अगर सचमुच मारा गया तो क्या मैं सचमुच इसे जल्दी से भूल जाऊंगी ? आख़िरकार हम सब कुछ भूल ही तो जाते हैं। मैं डर गई और हड़बड़ाहट में मैंने कहा, ‘ऐसे मत बोलिए। मैं अपनी मौत बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी।’ कुछ देर चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘कोई बात नहीं। अगर मैं लड़ाई में मारा भी गया तो वहां ऊपर तुम्हारा इंतज़ार करूंगा। तुम ठीक से दुनिया में खुशी-खुशी ज़िंदगी बिताना, फिर मेरे पास आना।’ मैं दुःख के मारे ज़ोर से रोने लगी….
अगली सुबह वह चला गया। मेरी मां ने उसे गले में वह मनहूस बैग पहनाया, जिसे उसने अपने हाथों से सिला था। इस बैग पर एक सुनहला प्रतीक चिह्न बना था, जिसे उसके दादा और पिता भी युद्ध में पहना करते थे। हमने बड़े दुःखी मन से उसे विदा किया। जाते हुए उसकी पीठ दिखाई देती रही और हम प्रभु का नाम लेकर सलीब बनाते रहे। माहौल में एक अजीब अकेलापन था जैसे मौसम के खुशनुमा माहौल से हमारा कोई लेना-देना ही न हो। थोड़ी देर खड़े रह कर हम खाली घर में घुसे। मैं एक से दूसरे कमरे में घूमती रही। कुछ समझ नहीं आ रहा था…. मैं क्या करूं। ज़ोर ज़ोर से रोऊं या गला फाड़कर गाऊं ?
वह मारा गया…. कैसे अजीब शब्द हैं ये ! एक महीने बाद गैलजीलिया में। और उस दिन से देखते ही देखते तीस साल बीत गए। इन सालों में क्या-क्या नहीं हुआ। ऐसे अजीबोगरीब दृश्य और हालात आंखों के सामने आते हैं जिन्हें दिलोदिमाग़ से नहीं समझा जा सकता, जिन्हें हम अपना अतीत कहते हैं।
मेरे माता-पिता गुज़र चुके थे। 1918 के वसन्त में मैं मास्को के एक बाज़ार में एक दुकानदार औरत के मकान के तहखाने में रहती थी। मैं भी औरों की तरह छोटी मोटी चीजें सैनिकों को बेचा करती थी। यहीं मेरी मुलाक़ात एक अद्भुत व्यक्ति से हुई। वे एक पूर्व सैनिक थे जिनसे जल्दी ही मेरी शादी हो गई और कुछ दिनों बाद मैं उनके साथ येकतिरिनदार चली गई।
अब मैं बूढ़ी हो गई और मेरे पति की दाढ़ी में भी सफ़ेद धारियां थीं। हमारे साथ मेरे पति का युवा भतीजा भी था। कई जगह रहने के बाद हम तुर्की की ओर समुद्री यात्रा पर चल पड़े। रास्ते में वायरल बुखार से मेरे पति चल बसे। अब पूरी दुनिया में मेरे निकट के तीन ही लोग बचे रह गए थे। मेरे पति का भतीजा, उसकी पत्नी और दोनों की सात महीने की बेटी।
कुछ दिनों बाद छोटी बच्ची को मेरे पास छोड़कर वे दोनों क्रीमिया की तरफ़ चले गए। उसके बाद उनका कोई पता नहीं चला कि वे कहां गए। मैं उस नन्ही जान को पालने पोसने के लिए छोटे मोटे काम करने लगी। उस बच्ची को लेकर में बल्गारिया, सर्बिया, चेक, बेल्जियम, पेरिस, नाइस…. पता नहीं कहां कहां घूमती रही।
कई बरस पहले वह छोटी सी लड़की बड़ी हो गई और पेरिस में ही रहने लगी और मैं नाइस में। इस शहर में पहली बार 1912 में आई थी। बड़े खुशगवार दिन थे वे। तब मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं कभी इस शहर में इस तरह भी रहूंगी। ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।
इस तरह मैंने अपने उस मंगेतर की मौत को बर्दाश्त किया, जिससे शादी की सिर्फ़ घोषणा हुई थी, न सगाई या कोई रस्म। मैं उसके बिना भी ज़िंदा रही, जबकि मैंने एक दिन गुस्से में कहा था कि उसकी मौत के बाद में भी ज़िंदा नहीं रहूंगी। खैर, मैं अपनी इस लंबी ज़िंदगी को याद कर ख़ुद ही से पूछती हूं कि असल में मुझे ज़िंदगी मे मिला क्या? और जवाब मिलता है, पतझड़ की एक शाम।
क्या वो शाम ( EVENING) कभी मेरी ज़िंदगी में आई भी थी? हां, मैंने अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक शाम ही तो पाई है, बाक़ी तो बस एक ख़्वाब जैसी ही रही है ज़िंदगी। मुझे यक़ीन है वह किसी जगह मेरा इंतज़ार कर रहा होगा, उसी प्रेम और जवांदिली के साथ, जैसे उस शाम था। ‘तुम कुछ दिन ज़िंदा रहो, दुनिया में खुश रहो, फिर मेरे पास चली आना….।’ मैं जीवित रही, कुछ ख़ुश भी रही और अब जल्दी ही उसके पास जाने वाली हूं।
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